Saturday 12 November 2011

baatcheet

आज देखा चाँद को
अपनी ओर देखते हुए
कुछ वोह भी हैरान था
और कुछ मैं भी पशेमान

मैंने कहा की देखता  क्यों
है इस हैरानी से
क्या तू भी मेरे जैसा
अकेला है आज रात


वोह हंसके बोला मुझसे
क्या बात करती हो
क्या मेरी तरह भी
कोई तन्हा हो सकता है


मैं लटका हूँ सदियों से
अन्तरिक्ष में ,
कभी घटता हूँ ,कभी बढ़ता हूँ
कभी तो किसी को नज़र भी नहीं आता


मुझसे क्या तुलना करती हो अपनी
मैं हूँ एक बेजान बूढा चेहरा
और तुम रोज़ ही जाती हो
बुढापे की ओर

मेरे दर्द को तुम क्या समझोगी
तुम नादान हो आखिर
अनजान हो मेरे कुरूप रूप से
कभी सोचो तो मेरी झुर्रियां कबसे हैं


 कभी तो ख़ूबसूरत थी तुम
कभी तो थे तुमपर बहुत से फ़िदा
मैं तो हूँ इक त्रिशंकुं की तरह
जिसका ना ओर है न छोर

मेरा कहा मानो
हंसा करो रोज़
क्योंकि तुम तो चली जाओगी जल्द ही
रह जाऊँगा मैं फिर से अकेला


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