खेलती थी वोह सुबह की बाँहों से
चलती थी मस्ती में
रहती थी एक सड़क किनारे
एक छोटी सी बस्ती में
न सर पर माँ-बाप का था साया
न ओढ़ने को था कफ़न ही
फिर भी अदा थी उस में
सितारों की सड़क पर मटकती थी सस्ते में
लोग फैंका करते थे थोड़ी सी चिल्लर
कभी देखते कभी घूरते
कुछ खीचते बिन धागे के
उसे पैसों से भरे बस्ते में
ऐसे ही एक दिन लुट गयी अस्मत उसकी
चलते हुए भीड़ में अकेले
न जाने कहाँ होगी अब
न घर में है न रस्ते में
चलती थी मस्ती में
रहती थी एक सड़क किनारे
एक छोटी सी बस्ती में
न सर पर माँ-बाप का था साया
न ओढ़ने को था कफ़न ही
फिर भी अदा थी उस में
सितारों की सड़क पर मटकती थी सस्ते में
लोग फैंका करते थे थोड़ी सी चिल्लर
कभी देखते कभी घूरते
कुछ खीचते बिन धागे के
उसे पैसों से भरे बस्ते में
ऐसे ही एक दिन लुट गयी अस्मत उसकी
चलते हुए भीड़ में अकेले
न जाने कहाँ होगी अब
न घर में है न रस्ते में
great mam...!!! :)
ReplyDeleteit's really painful
ReplyDeletea painful story of poor india
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