Tuesday, 29 November 2011

na jaane kahan hogi woh

खेलती थी वोह सुबह की बाँहों से
चलती थी मस्ती में
रहती थी एक सड़क किनारे
एक छोटी सी बस्ती में


न सर पर माँ-बाप का था  साया
न ओढ़ने को था कफ़न ही
फिर  भी अदा थी उस में
सितारों की सड़क पर मटकती  थी सस्ते में

लोग फैंका करते थे थोड़ी सी चिल्लर
कभी देखते कभी घूरते
कुछ खीचते बिन धागे के
उसे  पैसों से भरे बस्ते में

ऐसे ही एक दिन लुट गयी अस्मत उसकी
चलते हुए भीड़ में अकेले
न जाने कहाँ होगी अब
न घर में है न रस्ते में


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